घंटाघर का अनसुना इतिहास : कैसे “बलबीर क्लॉक टावर” बना देहरादून का प्रसिद्ध “घंटाघर”
उत्तराखंड के इतिहास में आज कहानी देहरादून के घंटाघर की….. देहरादून के टावर में लगी गाड़ियों के पास आपको इस शहर के पूरे समयकाल का लेखाझोका मिल जाएगा । इतिहास में झांकेंगे तो पता चलेगा की कैसे बलवीर क्लॉक टावर देहरादून का प्रसिद्ध घंटाघर बन गया । आज के समय में देहरादून के बीचो-बीच 70 फीट लंबी एक इमारत खड़ी है । जिसे हम घंटाघर के नाम से जानते हैं । इमारत का निर्माण तो 1948 में हो गया था । कहते हैं घंटाघर के निर्माण से पहले उस जगह पर पानी की दो टंकियां हुआ करती थी और तांगा स्टैंड भी हुआ करता था । अब सवाल यह है कि आखिर किसने देहरादून को क्लॉक टावर की सौगात दी ।
कहानी कुछ ऐसी है कि देहरादून में लाला बलवीर सिंह नाम के एक न्यायाधीश हुआ करते थे, न्यायाधीश होने के साथ साथ वह शहर के जाने-माने रईस भी थे । बलबीर सिंह अपनी पत्नी मनभरी देवी और अपने चार बेटों लाला शेर सिंह, आनंद सिंह, हरि सिंह और अमर सिंह के साथ देहरादून में रहा करते थे । परिवार में आपस में काफी प्यार था और घर में पैसे की भी कोई कमी नहीं थी । सब कुछ यूं ही हंसी खुशी चल रहा था । लेकिन दिक्कत तब आ गई जब 22 सितंबर 1936 को देहरादून के मशहूर रईस बलबीर सिंह का निधन हो गया । पूरे शहर में बात फैल गई की देहरादून के मशहूर रईस बलबीर सिंह अब नहीं रहे । परिवार काफी आहत था ।
Paltan Bazar Dehradun – Old Photos
बलबीर सिंह का परिवार उनसे बहुत प्यार करता था और इसी प्यार को संजोए रखने के लिए परिवार ने बलबीर सिंह की याद में बलबीर क्लॉक टावर का निर्माण करने की बात सोची और बलबीर सिंह के बेटे आनंद सिंह ने अपने भाइयों और मां से सलह मशहोरा करने के बाद बलवीर सिंह की स्मृति में बलबीर सिंह क्लॉक टावर का निर्माण का प्रस्ताव सिटी बोर्ड को भेज दिया । उसे समय पर आनंद स्वरूप गर्ग सिटी बोर्ड के अध्यक्ष हुआ करते थे । जब आनंद स्वरूप तक ये प्रस्ताव पहुंचा तो उन्हें प्रस्ताव काफी पसंद आया ।
आनंद स्वरूप गर्ग इस प्रतिमा के निर्माण में पक्षधर थे । लेकिन बात तब बिगड़ी जब शहर के रईसों ने इसकी सहमति नहीं जताई । शहर के अन्य रईसों को बिल्कुल भी यह बात रास नहीं आई कि दूसरे रईस की स्मृति में इस शहर के क्लॉक टावर का निर्माण हो और चुकी बात बिगड़ रही थी इसलिए सिटी बोर्ड के अध्यक्ष आनंद स्वरूप ने बलबीर सिंह के बेटे आनंद सिंह को एक सुझाव दिया । आनंद रुवरुप ने कहा कि अगर तुम घंटाघर के निर्माण के शिलान्यास के लिए यूपी की तत्कालीन गवर्नर सरोजिनी नायडू को तैयार कर लो तो सारी उलझने समाप्त हो जाएंगी ।अब हुआ भी कुछ ऐसा ही………. आनंद सिंह ने यूपी की तत्कालीन गवर्नर सरोजिनी नायडू के सामने यह प्रस्ताव पेश करते हुए बलबीर क्लॉक टावर का शिलान्यास के लिए न्योता भेजा । सिटी बोर्ड के अध्यक्ष द्वारा आनंद सिंह को दिया गया यह सुझाव काम कर गया और गवर्नर सरोजिनी नायडू न्योते को स्वीकार करते हुए देहरादून मआ पहुंची ।
4 जुलाई 1948 सुबह करीब 9:10 पर रिमझिम बारिश की फुहारों के बीच राज्यपाल सरोजिनी नायडू ने देहरादून शहर के स्थल चिह्न घंटाघर की नींव रखी । ठेकेदार ईश्वरी प्रसाद चौधरी, नरेंद्र देव सिंघल को घंटाघर के निर्माण का काम सौंपा गया । वही इमारत की वास्तुकला का काम हरी राम मित्तल व रामलाल को दिया गया । खास बात यह थी कि पहले घंटाघर का डिजाइन चकोर रखा गया था हालांकि बाद में इस बदलकर षट्कोण आकार दिया गया । कहते हैं इमारत का आकार बदलने में उस वक्त बजट में ₹900 की बढ़त हुई थी । जबकि इमारत को बनने में पूरा सवा लाख का खर्चा आया था । ईट बजरी से बनी यह 70 फीट की ऊंची इमारत को बनने में पूरे 4 साल का समय लगा था और 1952 में यह इमारत बनकर तैयार हो गई ।
इमारत बनकर तैयार थी और फिर इसमें लगने वाली गाड़ियों को स्विट्जरलैंड से मंगवाया गया । भारी-भारी मशीन मंगवाई गई और इन मशीनों को घड़ी की टिक टिक के साथ 70 फीट ऊंची इमारत में फिट किया गया । इस तरीके से 4 सालों में घंटाघर बनकर तैयार हुआ अब इंतजार था तो इस इमारत के उद्घाटन का । घंटाघर के उद्घाटन के लिए इस बार न्योता भेजा गया तत्कालीन रेल यातायात मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को। लाल बहादुर शास्त्री को आमंत्रित किया गया ।
15 अक्टूबर 1953 को लाल बहादुर शास्त्री ने देहरादून पहुंचकर शाम करीब 4:45 पर देहरादून के प्रसिद्ध स्थल चिह्न घंटाघर का उद्घाटन किया और इस तरीके से देहरादून को घंटाघर के रूप में एक सौगात मिली ।